> काव्य-धारा (Poetry Stream): जीवन, प्यार और आत्मा-झलक : बरसती आँखें

बुधवार, 26 जून 2013

बरसती आँखें




बरस बरस से बरसती आईं आँखें
तेरे दर्शन को तरसती हैं ये आँखे
तुम आई तो खुशी से बरसी आँखें
तुम गई तो रातों को बरसी आँखें
 
कितने मेघ छुपे हैं इन आँखों में
कितने जल-चक्र लगे हैं आँखों में
तुमको बसा लिया हैं इन आँखों में
फिर भी सैलाब भरा है आँखों में
 
विरह का दर्द इतना तीखा होता है
होठों से एक शब्द भी न निकलता है
गंगा जमुना की धारा नैनों से बहती है
बाँध बंद पलकों का रोक नहीं पाता है
 
तपन अपने देह में सूरज से नहीं है
विरह की अग्नि चारों तरफ लगी है
मिलन की आशा हरपल जगी हुई है
तन बचाने के लिए आँखों में सैलाब है |
 
© हेमंत कुमार दुबे

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