> काव्य-धारा (Poetry Stream): जीवन, प्यार और आत्मा-झलक : गौरैया

मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

गौरैया


 


घास-फूस लकड़ी के ऊपर

खपरैल की छत होती थी

आँगन में दाने चुगती

गौरैया घर में होती थी

 

रोज प्रात: ची-ची करती

गौरैया पहले उठ जाती थी

कभी इधर कभी उधर फुदक

बचपन में मन बहलाती थी

 

आती थी जिस जंगले से हवा

सखियों संग वह भी आती थी

चोंच में ला कर नीम के तिनके

बल्लियों के बीच घर बनाती थी

 

आँगन में धान से चावल

बड़ी सफाई से खाती थी

आहट पाते ही कदमों के

भूसी छोड़कर उड़ जाती थी

 

बने मकान ईंट-सीमेंट के

गौरैयों के आशियाने छुटे

लुप्तप्राय हो गयी गौरैया

जैसे बचपन के दिन बीते |

 

(c) हेमंत कुमार दुबे 
 
- 'कालजयी' काव्य संग्रह में प्रकाश्य | देखें 'कालजयी' को फेसबुक पर : https://www.facebook.com/Kaaljayi

 

1 टिप्पणी: